Hindi translation of Sanskrit for Class 10 Sanskrit Shemushi Chapter 6 सुभाषितानि
पाठसार
संस्कृत साहित्य में ज्ञानवर्धक कथाओं और श्लोकों का बाहुल्य है। संस्कृत भाषा में लिखित सुन्दर वचनों को सुजित या सुभाषित' कहते हैं। इन श्लोकों में कहीं नीतिगत बातें कही गई हैं तो कहीं सार्वभोम सत्य को प्रस्तुत किया है। प्रस्तुत पाठ में इसी प्रकार के दस श्लोकों का संग्रह है-
आलस्य मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। यह ऐसा शत्रु है जो मनुष्य के शरीर में ही निवास करता है। गुणवान् व्यक्ति ही गुणों के महत्त्व को जानता है। बलवान् व्यक्ति बल के महत्व को जानता है। सामान्य व्यक्ति कारण के उपस्थित होने पर क्रुद्ध हो जाता है तथा कारण के हट जाने पर प्रसन्न हो जाता है, परन्तु अकारण द्वेष करने वाले व्यक्ति को प्रसन्न नहीं किया जा सकता। कहे हुए अर्थ को पशु आदि भी ग्रहण कर लेते हैं। बुद्धिमान् व्यक्ति संकेत को ही समझ लेता है। क्रोध मनुष्य के शरीर में स्थित ऐसा शत्रु है, जो उसे ही जला डालता है। जिस प्रकार काष्ठ में स्थित अग्नि काष्ठ को ही जला डालती है।
समान स्वभाव वालों में ही मैत्री हुआ करती है। अतः मूर्खों के साथ मूर्ख तथा सज्जनों के साथ सज्जन रहते हैं। महान् वृक्ष का आश्रय लेना चाहिए। यदि फल प्राप्त नहीं होंगे तो छाया अवश्य मिलेगी। समृद्धि और विपत्ति-दोनों अवस्थाओं में महापुरुषों की एकरूपता होती है। यथा-उदय तथा अस्त-दोनों कालों में सूर्य रक्तवर्ण होता है। इस संसार में हर प्राणी किसी न किसी क्षेत्र में महत्वपूर्ण अवश्य होता है।
क) आलस्य हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः ।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ॥1॥
शब्दार्थ-
आलस्यम् - आलस्य
शरीरस्थः - शरीर में स्थित
रिपुः - शत्रु
बन्धुः - मित्र
अवसीदति -दुखी होता है।
अनुवाद- आलस्य मनुष्यों का सर्वश्रेष्ठ शत्रु है, जो उनके शरीर में ही निवास करता है। परिश्रम के समान
कोई बन्धु नहीं है, जिसे करके (मनुष्य) दुःखी नहीं होता है।
भावार्थ- आलस्य मनुष्य का शत्रु है तथा परिश्रम मनुष्य का मित्र है।
ख) गुणी गुणं वेत्ति न वेत्ति निर्गुणो,
बली बलं वेत्ति न वेत्ति निर्बलः।
पिको वसन्तस्य गुणं न वायसः,
करी च सिंहस्य बलं न मूषकः ॥2॥
शब्दार्थ-
गुणी - गुणवान्
वेत्ति - जानता है
बली - बलवान
पिकः - कोयल
वायसः - कव्वा,
करी- हाथी
मूषकः - चूहा।
अनुवाद- गुणवान् गुण को जानता है तथा गुणहीन (गुण को) नहीं जानता। बलवान व्यक्ति बल को जानता है तथा निर्बल (बल को) नहीं जानता। वसन्त के गुण को कोयल जानती है, कव्वा नहीं। सिंह के बल को हाथी जानता है, चूहा नहीं।
भावार्थ- इस संसार में गुणवान् व्यक्ति ही गुण को जानता है।
(ग) निमित्तमुद्दिश्य हि यः प्रकुप्यति,
ध्रुवं स तस्यापगमे प्रसीदति।
अकारणद्वेषि मनस्तु यस्य वै,
कथं जनस्तं परितोषयिष्यति ॥3॥
शब्दार्थ-
निमित्तम् - कारण को
उद्दिश्य - मानकर
प्रकुप्यति - अत्यधिक क्रोध करता है
ध्रुवम् – अवश्य ही
अपगमे - समाप्त होने पर
प्रसीदति- प्रसन्न होता है
अकारणद्वेषि - अकारण द्वेष करने वाला
कथम् - किस प्रकार
परितोषयिष्यति- सन्तुष्ट करेगा।
अनुवाद- जो कारण को मानकर क्रोधित होता है, वह उस (कारण) के समाप्त होने पर अवश्य ही प्रसन्न हो जाता है। जिस (व्यक्ति) का मन अकारण द्वेष करने वाला है, उसे व्यक्ति किस प्रकार सन्तुष्ट कर सकता है?
भावार्थ- अकारण द्वेष करने वाले व्यक्ति को प्रसन्न नहीं किया जा सकता।
(घ) उदीरितोऽर्थः पशुनापि गृह्यते,
हयाश्च नागाश्च वहन्ति बोधिताः।
अनुक्तमप्यूहति पण्डितो जनः,
परेङ्गितज्ञानफला हि बुद्धयः ॥4॥
शब्दार्थ-
उदीरितः कहा हुआ
गृहयते - ग्रहण किया जाता है
हयाः-घोड़ा
नागाः- हाथी
वहन्ति- वहन करते हैं
बोधिताः – प्रेरित
अनुक्तम् - न कहा गया
ऊहति - अंदाजा लगाया जाता है
पण्डितः - विद्वान्
परेङ्गित - दूसरे के द्वारा संकेतित
ज्ञानफलाः - ज्ञान रूपी फल वाले।
अनुवाद- कहा गया अर्थ पशु के द्वारा भी प्राप्त किया जाता है। प्रेरित किए गए घोड़े तथा हाथी भी वहन
करते हैं। विद्वान् व्यक्ति बिना कही गई बात (या अर्थ) का भी अंदाजा लगाता है। दूसरे लोगों के संकेत से उत्पन्न
ज्ञान रूपी फल वाली बुद्धियाँ होती हैं।
भावार्थ- विद्वान लोग संकेत को भी समझ लेते हैं।
(ङ) क्रोधो हि शत्रुः प्रथमो नराणां,
देहस्थितो देहविनाशनाय।
यथास्थितः काष्ठगतो हि वहिः,
स एव वहिर्दहते शरीरम् ॥5॥
शब्दार्थ-
प्रथमः - पहला
नराणाम् - व्यक्तियों का
देहस्थितः - शरीर में स्थित
देहविनाशाय - शरीर के नाश के लिए
काष्टगतः - लकड़ी में समाई हुई
वहिः - अग्नि
दहते - जला डालती है।
अनुवाद- क्रोध व्यक्तियों का शरीर के नाश के लिए देह में स्थित पहला शत्रु है। जैसे लकड़ी में अग्नि
समाई हुई है। वह अग्नि ही (काठ को जला डालती है, उसी प्रकार क्रोध) शरीर को जला डालती है।
भावार्थ- क्रोध मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है।
(च) मृगा मृगैः सङ्गमनुव्रजन्ति,
गावश्च गोभिः तुरगास्तुरङ्गैः।
मूर्खाश्च, मूर्खेः सुधियः सुधीभिः,
समान-शील-व्यसनेषु सख्यम् ॥6॥
शब्दार्थ-
मृगाः - हिरण
सङ्गम् – साथ
अनुव्रजन्ति - अनुसरण करते हैं
तुरङ्गाः - घोड़े
सुधियः - बुद्धिमान
व्यसनेषु - स्वभाव
सख्यम् - मित्रता
अनुवाद- हिरण हिरणों के संग का अनुसरण करते हैं। गायें गायों का, घोड़े घोड़ों का, मूर्ख मूर्खों का तथा
विद्वान् लोग विद्वान् लोगों का (अनुसरण करते हैं)। (क्योंकि) समान आचरण और स्वभाव वालों में ही मित्रता
हुआ करती है।
भावार्थ- समान स्वभाव वाले प्राणियों में परस्पर मित्रता होती है।
(छ) सेवितव्यो महावृक्षः फलच्छायासमन्वितः।
यदि दैवात् फलं नास्ति छाया केन निवार्यते ॥7॥
शब्दार्थ
समन्तितः - युक्त
सेवितव्यः आश्रय करना चाहिए
दैवात् - भाग्य से
केन - कौन
निवार्यत - रोक सकता है
अनुवाद- फल और छाया से युक्त महान् वृक्ष का आश्रय करना चाहिए। यदि भाग्य से फल (प्राप्त) न
हों तो छाया को कौन रोक सकता है?
भावार्थ- महान् पुरुष की सेवा निष्फल नहीं होती है।
(ज) अमन्त्रमक्षरं नास्ति, नास्ति मूलमनौषधम् ।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति योजकस्तत्र दुर्लभः ॥8॥
शब्दार्थ-
अमन्त्रम् - मंत्रहीन
नास्ति - नहीं है
मूलम् - जड़
अनौषधम् - जड़ी बूटी से रहित
अयोग्यः - जो योग्य न हो
योजकः - जोड़ने वाला।
अनुवाद- मंत्र से हीन अक्षर नहीं होता है। औषध से रहित कोई जड़ नहीं होती है। (इस संसार में) कोई
व्यक्ति अयोग्य नहीं होता है। जोड़ने वाला ही दुर्लभ हुआ करता है।
भावार्थ- इस संसार में कुछ भी व्यर्थ नहीं है।
(झ) संपत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता।
उदये सविता रक्तो रक्तश्चास्तमये तथा ।।।
शब्दार्थ-
संपत्तौ - समृद्धि की दिशा में
विपत्तौ - संकट की अवस्था में
महताम् – महापुरुषों का
एकरूपता - एक समान रहना
सविता - सूर्य
रक्तः - लालवर्ण
तथा – उसी प्रकार।
अनुवाद- समृद्धि की दशा तथा संकट की दशा-दोनों अवस्थाओं में महापुरुषों की एकसमान स्थिति रहती
है। (जिस प्रकार) उदय काल में सूर्य रक्तवर्ण होता है, उसी प्रकार अस्त समय भी वह लालवर्ण वाला होता है।
भावार्थ- उन्नति तथा अवनति-दोनों अवस्थाओं में महापुरुषों की प्रकृति समान ही रहती है।
(ज) विचित्रे खलु संसारे नास्ति किञ्चिन्निरर्थकम् ।
अश्वश्चेद् धावने वीरः भारस्य वहने खरः ॥10॥
शब्दार्थ-
विचित्रे - विचित्र
खलु अवश्य ही
निरर्थकम् - व्यर्थ
अश्वः घोड़ा
चेत् - यदि
धावने- दौड़ में
वहने खींचने में
खरः - गधा।
अनुवाद- (इस) विचित्र संसार में कुछ भी व्यर्थ नहीं है। यदि में घोड़ा वीर (अर्थात् समथ) है तो
भार को खींचने में गधा (वीर है)।
भावार्थ- इस संसार में हर प्राणी महत्वपूर्ण है।
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